Sunday, December 27, 2009

गणेश - व्यवहार को पवित्र बनाने वाले परम प्रेरक देव

गणेश हमारी संस्कृति के मंगलमूर्ति देव हैं । वैसे तो हमारे समस्त देवी-देवताओं में दातापन है, किन्तु गणेश मंगलदाता हैं । वे सारे काज निर्विघ्न पूर्ण करते हैं । हमारे लोकगीतों में उनकी प्रशस्ति के गीत हैं । मालवी लोकगीतों में तो गणेश की पारस की मूर्ति बनाने की कल्पना है, जिसे छू कर हमारा विकारी जीवन स्वर्ण बन जाए । दरअसल, गणेश हमारे सोच, चिंतन, धारणा और व्यवहार में इसलिए पूजनीय हैं क्योंकि वे गुणों की खान हैं । उनमें समस्त गुण और शक्तियॉं शोभायमान हैं । श्री गणेश अर्थात्‌ श्री गुणेश । वे श्री अर्थात्‌ श्रेष्ठ तो हैं ही, देवताओं में गुणों के देव हैं ।
आज जगह-जगह अमंगल का साम्राज्य है । दुर्गुणों का बोल-बाला है । हिंसा, क्रोध और विकारों से भरपूर है पूरा जीवन । विवेक लुप्त है । सहानुभूतियॉं गुम हैं । धर्म के नाम पर आडम्बर शीर्ष पर है। मनुष्य मात्र जैसे अपने लक्ष्य अर्थात्‌ अन्तरदर्शन को भूल गया है । ज्ञान और विवेक ही जब विलुप्त है तो फिर आदमी से दैवोचित व्यवहार की उम्मीद कैसे की जाए ? गणेश हमें दैवोचित गुणों को धारण करने की प्रेरणा देते हैं ।
सच पूछो तो हमारे देवताओं की पवित्र नज़रों में निहाल करने की शक्तियॉं हैं । इसीलिए तो आज भी उनकी जड़-मूर्तियों के सम्मुख लाखों, हज़ारों लोग सिर टेकते हैं, मतें मांगते हैं और कल्याण की कामना करते हैं । गणेश विघ्न-विनाशक मंगलमूर्ति देव ऐसे देव हैं जिनका दर्शन मात्र हमारे समस्त विकारों का नाश करता है । गणेश हमारे बोल, संकल्प, दृष्टि, चलन, व्यवहार को पवित्र बनाने वाले परम प्रेरक देव हैं । गणेश की आकृति ही स्पष्ट रूप से सिद्ध करती है कि उनका स्वरूप सचमुच दैवी गुणों की आकृति है। गणेश की आँखें छोटी हैं जो हमें सिखाती है कि हमारी दृष्टि सूक्ष्म हो । गणेश के सूप जैसे कान बताते हैं कि हम दुनिया की बातें सुनें, सबकी सुनें, किन्तु अचल-अडौल बने रहें । गणेश का छोटा मुँह इस बात का प्रतीक है कि हम कम बोलें, कम आकांक्षाएँ रखें ।
गणेश का बड़ा सिर विवेक का प्रतीक है । गणेश का बड़ा पेट सूचक है सहनशीलता का, समाने का । विशाल उदर, उदारता का प्रतीक है । गणेश की सूँड अद्‌भुत परख-शक्ति की प्रतीक है । गणेश का वाहन चूहा है । चूहा हमारे साधनों को कुतरता है, काटता है, अर्थात्‌ समर्थ को व्यर्थ बनाता है । हमें ऐसे तमाम साधनों को अपने वश में करके रखना चाहिए जो व्यर्थ को बढ़ावा देते हैं, उन्हें दबाकर रखना चाहिए, चाहे ये साधन कितने ही छोटे क्यों न हों । कहने का तात्पर्य है कि जब हम गणेश जैसे विकार रहित हो जाएंगे तो स्वयं मंगल-मूरत बन जाएँगे । गणेश की प्रशस्ति और पूजा इसी में है कि हम गणेश के स्वरूप को अपने गुणों में धारण करें ।