Thursday, August 12, 2010

आओ जान लें प्रार्थना के सच्चे अर्थ !


शांति और सुख की कामना में की गई प्रार्थना ही प्रार्थना है । प्रार्थना के पूर्व सुख-शांति का स्वरूप जानो तो वह ज़रूर पूरी होगी । स्वार्थ में की गई प्रार्थना, प्रार्थना नहीं है, वह याचना है । अपने स्वमान में की गई प्रार्थना देह अभिमान को दूर करेगी । मन अशांत है तो प्रार्थना कैसी ? अशांति में शांत होकर अशांति का कारण खोजो । उसके निवारण का विचार करो । प्रार्थना के पूर्व नकारात्मकता को हटाओ अन्यथा प्रार्थना निष्फल होगी। सकारात्मकता का सोच यदि बनेगा तो समझो प्रार्थना क़बूल हुई है।

हम सुख को बाहर खोजते हैं । उसे पाने के लिए यत्न करते हैं और प्रार्थना को माध्यम बनाते हैं पदार्थों को पाने के लिए, यह प्रार्थना नहीं है । सुख का स्वरूप जाने बग़ैर की गई प्रार्थना, प्रार्थना के स्वरूप को मिटा देना है। सच्चे सुख की खोज में की गई प्रार्थना बेमानी कभी नहीं होगी यदि सुख-सुकून की परिभाषा को जान लें । सुख-सुकून अर्थात्‌ सच्चा आनंद । यह मन के शाश्वत और सकारात्मक भावों से पुख़्ता होता है । व्यक्तियों, स्थितियों और परिस्थितियों के बदलाव की मत सोचो, वे बदलेंगे नहीं । बदलना तो ख़ुद को ही होता है । जब तक ख़ुद को बदलने का सोच, निःस्वार्थता का भाव उपजेगा नहीं, प्रार्थना शुभ नहीं होगी । शुभ प्रार्थना ही शुभ संकल्पों के स्वर लहराती है, सकारात्मक धारणाओं को जन्म देती है । प्रार्थना से कृतज्ञता का बीज अंकुरित होता है।
प्रार्थना मनसा, वाचा और कर्मणा से हमें समूचे अस्तित्व में समाहित कराती है । समष्ठि से प्रेमयुक्त होना ही प्रार्थना है । अपने अविनाशी स्वरूप को खोजना ही प्रार्थना है । यह खोज ही सिद्धि देगी । अन्यथा अन्य सिद्धियों की चाह प्रार्थना नहीं, निरर्थक आस है । प्रार्थना असंतुष्टि को क्षमा में बदलती है, ईर्ष्या और सारे मिथ्या अभिमानों का बहिष्कार करती है और मन में गूँजाती है नीचे से ऊपर उठने की तथा फिसलन से ऊर्ध्व होने की चाह और तब अनगाई प्रार्थना स्वरबद्ध हो जीवंत हो जाती है ।

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