Friday, September 10, 2010

विश्वास नहीं तो आपके सुकार्यों के सुफल नहीं !


कहते हैं आप घोड़े को पानी पिलाने के लिए तालाब तक ले जा सकते हैं, किन्तु तालाब को घोड़े के पास नहीं ले जा सकते । यही हाल हमारे विश्वास का है । आपको विश्वास नहीं तो कार्य की परिणति नहीं । उसका सुफल नहीं । आप सद्‌कार्य के लिए किसी को भी प्रेरित कर सकते हैं किन्तु यदि उस व्यक्ति की धारणा कच्ची है अथवा आपके कथन और उसकी करनी में साम्य नहीं है तो आपकी सीख, शिक्षा, राय, सलाह पर उसे विश्वास नहीं होगा ।विश्वास एक ऐसी भावना है जो रेगिस्तान में फूल उगाती है ।विश्वास ही वह माध्यम है जिसके सहारे राही अपनी मंज़िल पा लेता है । दरअसल, विश्वास की डोर तभी पक्की होती है जब प्यार के निर्मल अविकारी भाव से वह बंधी हो, बिना प्यार के विश्वास अंकुरित नहीं होता । जहॉं विश्वास है वहॉं समर्पण है । जहॉं समर्पण है वहॉं निःस्वार्थता है। यही निःस्वार्थता तो मॉं के आँचल से फूटती है और शिशु मॉं की गोद में अटूट विश्वास की सॉंस लेता है और इसी से वह निश्चिंतता और समस्त बाधाओं से मुक्त हो मॉं की ममता के झूले में समर्पित झूलता है बेख़ौफ़। विश्वास वह आश्वासन है जिसकी पतवार यदि आपके हाथ में है तो मंज़िले-मक़सूद आपके क़दमों में है। आप चन्द क़दम ही चलेंगे और मंज़िल आपके क़दम चूमेगी।विश्वास वह सेतु है जो रिश्तों, भावनाओं, संवेदनाओं के सुदूर छोरों को जोड़ देता है अटूट-अखंड । विश्वास की मिट्‌टी में श्रद्धा के कमल खिलते हैं । प्यार, क़ुर्बानी, त्याग और निश्चय ऐसे साधन हैं जिनके रहते संशय सिमट जाता है और विश्वास का हंस शुभ कर्मों के पंख पाकर उड़ जाता है अनंत आकाश की ऊँचाइयों में ।अविश्वास अंधविश्वास का जनक है । जहॉं विश्वास है वहॉं अंधविश्वास की कोई जगह नहीं । विश्वास वह नींव है जिस पर निर्मित होता है शुभ संकल्पों और शुभ कर्मों का महल । विश्वास वह आंतरिक रूहानी शक्ति है जिसमें विकारों की छाया होती ही नहीं । जहॉं विश्वास है वहॉं भूलों, त्रुटियों और बहानों को याद नहीं किया जाता। केवल विश्वास से प्राप्त अवदानों की ही स्मृति बनी रहती है ।

Sunday, September 5, 2010

ध्यान से सुनना भी एक साधना है


जैसे देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, वैसे ही सुना अनसुना भी कर देते हैं । कान सुनने के यंत्र हैं । किन्तु, जब कान से सुनी बात मन अनसुनी कर दे तो मन में शब्द का अर्थ दर्ज़ नहीं होता । वह अनसुना हो जाता है । परिणाम में धारणा सुनसान हो जाती है । तब, योग्य सुना हुआ शब्द भी अर्थ खो देता है और वह व्यर्थ हो जाता है। यह अनसुनापन समर्थ को व्यर्थ और व्यर्थ को समर्थ बना देता है ।

दरअसल, जब ध्यान से सुना शब्द अर्थ लेता है तभी वह सार्थक होता है । शब्द पक्का बनकर हरकत में आता है और मन के आदेश में आकर तन की इन्द्रियों से क्रिया करवाता है । जब तक कानों में पड़ा शब्द मन स्वीकार नहीं करता, तन हरकत नहीं करता । अनसुना करने की लगातार क्रिया मनन शक्ति को बोथरा कर देती है । आप बहरे के पास ढोल बजाओ, उसे सुनाई नहीं देगा, किन्तु सुनने वाले ने जब अनसुना कर दिया तो आपके शब्द का बजा ढोल किस काम का ?

पता नहीं मतलब की बात भी लोग अनसुनी क्यों कर देते हैं ? बेमतलब की बात को क्यों सुनते हैं ? होना तो यह चाहिए कि वह सब सुना जाए और किया जाए जो काम का हो । काम इसीलिए बिगड़ता है कि हमने उसे करने से पहले सुना नहीं ।

हमारे यहॉं बच्चे के जनम पर थाली बजाई जाती है । घर की माताएँ-बहनें नवजात शिशु की आँखों में हर्षित होकर उसकी सुखकारी मुद्राएँ क्यों देखती हैं ? इसीलिए कि बच्चा सुनता है या नहीं । अर्थात्‌ सुनने का अभ्यास जन्म से कराने के पीछे यही भाव है कि वह ताज़िंदगी अच्छा और सार्थक सुनता रहे । जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है; गाय-बैलों की घंटियों, मॉं-बहनों की चूड़ियों की खनक, दादियों-नानियों की लोरियों के स्वर उसके कानों में रस घोलते हैं । और, यहीं से अंकुरित होती है बेहतर और सार्थक सुनने की भावना । किशोरावस्था में यह सुनने की भावना पक्की होती है और आदमी रस पिपासु बनता है। चौपालों के लोकगीत, मन्दिरों के गीत, भजन, गुरुजनों, शिक्षकों की सीख आख़िर हमें क्या देती है ? अच्छी बातों को सुनने की आतुरता! उन्हें धारण कर ही तो विकार मिटते हैं । नर से नारायण बनने की प्रक्रिया है यह । सुनने, मनन करने, धारण करने और संकल्पित भाव से क्रियाशील बनने की ही तो कोशिश है यह। सच तो यह है कि श्रद्धा से सुना शब्द ही धारण होता है । अच्छी बात सुनने के लिए कान सदा खुले रखो । "सुनो सब की, पर करो मन की' इस कहावत का अर्थ कभी नकारात्मक मत लो । सही सुना हुआ शब्द मन को भायेगा ही । जिस बात में सबका भला हो उसकी कभी अनसुनी मत करो । जिस बात से सबका कल्याण हो, ज़रूर सुनो ।