Thursday, August 26, 2010

हम चाहते नहीं,फ़िर दु:ख क्यों आता है !



तन की पीड़ा मिटाने की अनेक औषधियॉं हैं । इन औषधियों के निर्माण, प्रचार-प्रसार और वितरण के भी अनेक साधन हैं । किन्तु, मन की पीड़ा मिटाने की औषधि कहॉं मिलेगी ? हमारे यहॉं, संतों-महात्माओं, मनीषियों, गुरुओं और औलियाओं ने आध्यात्मिक रास्ते से अनेक उपाय सुझाए हैं स्वमन को दुरूस्त करने और वृत्तियों में पलने वाले दुःख को दूर करने के। शास्त्र भरे पड़े हैं हमारे यहॉं मन को स्वस्थ करने के बारे में । दरअसल, यह भी तो जाना जाए कि मन के दुःख के कारण क्या हैं ? उनका निवारण क्या है ? कहते हैं मन चंचल है । मन पागल है । मन बावरा है । मन मानता नहीं । मन माने कैसे ? यह मनमानी करता है । सच तो यह है कि मन के दोष का मूल कारण है देह का अभिमान। अनेक विकारों में, यह अभिमान ही मुख्य है । जब आप देह अभिमानी होते हैं तब आप जड़ वस्तुओं, व्यक्ति, वैभव, साधन और देह की दुनिया के आकर्षण में ही लगे रहते हैं । उनके प्रति लगाव का मिथ्या भान ही मन की पीड़ा का मुख्य कारण है । असल में देह और देह से लगे संबंध, पदार्थ और उनके आकर्षण नाशवान हैं और जो नाशवान हैं, अविनाशी नहीं हैं, स्थाई नहीं हैं, वे दुःख देते हैं । जब नाशवान देह के इर्द-गिर्द ही नाशवान आकर्षण रहेंगे तो स्थाई सुख मन को कैसे मिलेगा ? नहीं मिलेगा । देह अभिमानवश जब मन, वस्तुओं और वैभव में फॅंसा रहेगा तो स्थाई सुख-शांति दिवास्वप्न ही होगी। स्थाई सुख-शांति किसी नुमाइश में नहीं मिलती । किसी बाज़ार में नहीं बिकती । कहीं मोल ख़रीदी नहीं जाती । सुख और शांति की निर्मिति तो ऐसी नियामत है जो मन के शुभ संकल्पों में ही पलती है । शुभ भावनाओं, शुभकामनाओं, शुभधारणाओं के मखमली आवरण में ही लिपटे होते हैं सुख और शांति । शुभकामना और रहमदिली की वृत्ति जब भी बनेगी, प्रवृत्ति सात्विक होगी और वही हमारी दृष्टि और वृत्ति को आकार देकर मन को निरोग करेगी । मन को निरोग बनाने के लिए सत्संगत और सु-संस्कार ज़रूरी हैं और इसके लिए सत्संकल्पों का खाद-पानी नितांत आवश्यक है । यह भी सच है कि हम जितने अंतर्मुखी होंगे, आत्मस्वरूप होंगे, परमात्म स्वरूप में चिंतनरत्‌ होंगे, गुणों की धारणा में होंगे; उतने ही पवित्र मंशा में भी होंगे । मंशा अर्थात्‌ जब हमारी नीयत (इंटेन्शन) पवित्र होगी, तब हमारा मन अविकारी होगा और हमारे व्यर्थ संकल्प विदा होंगे, निरर्थक विचार निर्मूल होंगे । हम निराशा, हताशा, ईर्ष्या और द्वेष से मुक्त होंगे । जब मन स्वतः निर्मल होगा तो हमारे चेहरे पर रूहानी चमक होगी ही, रूहानी मुस्कुराहट थिरकेगी ही !

5 comments:

  1. बहुत प्रेरक बातें
    अच्छी तस्वीर।

    ReplyDelete
  2. अविकारी होना इस युग में बडा कठिन है.मगर यही मूल तत्व है.

    ReplyDelete
  3. नमस्कार मित्र आईये बात करें कुछ बदलते रिश्तों की आज कीनई पुरानी हलचल पर इंतजार है आपके आने का
    सादर
    सुनीता शानू

    ReplyDelete
  4. गंभीर सार्थक लेखन...
    सादर...

    ReplyDelete