जियरा है कि ख़ुद-ब-ख़ुद आत्मा के तानपूरे पर मियाँ की मल्हार छेड़ रहा है. रूठे बादल ने मौसम विभाग के अनुमानों को धता बताते हुए साबित कर दिया है कि वह किसान के आँसू का मान जानता है. इन दिनों में मालवा जिस तरह तरबतर हुआ है उससे इस बात पर यक़ीन हो आता है कि ऊपर वाले के यहाँ देर है अंधेर नहीं. जून-जुलाई की उमस ने अपने पैर पसारे थे उससे लग रहा था कि इस बार हमारे काश्तकार भाईयों की जान साँसत में है . लेकिन भला हो नीली छतरी वाले का जिसने अवाम को आसूदगी बख्श दी. मालवा का पठार जिस आबोहवा और तसल्ली के लिये जाना जाता है वह गुज़रे कल का हो गया. बीते दशकों में सीमेंट-काँक्रीट के जंगले खड़े कर हमने पर्यावरण के साथ जो मज़ाक किया है उसका ख़ामियाज़ा तो हम शहरियों को भुगतना ही है लेकिन बेचारे किसान का क्या कुसूर ? वो आज भी कमर कस के,खेत में बादलों से बरसती बूँदों के साथ अपने श्रम का पसीना बहा कर धरती माँ के पाँव पखार रहा है. देखते-देखते हमने बारिश का आनंद लेने की तमीज़ भी खो दी है. एक वक़्त था जब सावन-भादौ की झड़ी का असर देखने मित्रों के साथ बिलावली, यशवंत सागर,सिरपुर जाने का जोश जागता था. माँडू में गाते हुए रूपमती-बाजबहादुर की रागदारी हमें मोहती थी. अब हम सिर्फ़ मोबाइल पर ही वॉट्स-एप्प वॉट्स-एप्प खेल रहे हैं और मन को रूखा बना रहे हैं. बरसते मेंघों का लुत्फ़ अपने बदन उतार में लेने के बजाय मोबाइल की तस्वीरों पर उतार रहे हैं. लगता है कि हमारे जज़बात कुछ इस कदर सूख गए हैं कि मन-के आनंद का पानी ठाठे ही नहीं मारता. पोखर में अपनी काग़ज़ की कश्ती को बहाने के लिये मलचने वाली नस्ल अब न जाने कहाँ चली गई. आई-पैड और फ़ेसबुक के चोचलों में हमने इंसान और उसकी भावनाओं की जुगलबंदी को ही बिसरा दिया है. अब हम भीगने से कतरा रहे हैं. वजह साफ़ है कि मन का भीगापन ही कहीं गुम हो गया है. एक समय था कि मेघराज की गड़गड़ाहट के साथ पडौसी को अपने घर बुला कर प्याज़,पालक और मिर्ची के भजिये खिलाने में आनंद आ जाता था. अब हमने पड़ौस ही खो दिया है. लेकिन अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हम चाहें तो अब भी उस खूबसूरत मंज़र को ज़िन्दा कर सकते हैं.. कुदरत तो दावत दे ही रही है कि ज़रा बाहर आओ और नहा लो इन बौछारों के नीचे. यूँ तो हमें कभी फ़ुरसत नहीं मिलने वाली है लेकिन एक बार तय कर लिया कि प्रकृति के प्रसाद का आनंद लेना है तो ज़रूर ले सकेंगे. फ़ख्र कीजिये कि हमारे यहाँ ग्रीष्म,शिशिर और शरद जैसी तीन-तीन ऋतुएँ हैं. इनका आना-जाना जीवन में परिवर्तन की भावभूमि रचता है.ये बरखा रानी भी आगामी दिनों में हमारे कैलेण्डर में आने वाले उत्सवों के मंगल-गीत गा रही है. कमर कस लीजिये और कमरे से बाहर आकर इन शीतल फ़ुहारों का अभिनंदन कीजिये.ये आई हैं,बिना किसी बुकिंग के,बिना किसी एडवांस के और बिना किसी बिल के ….ये तो अपना दिल आप पर लुटाने आई है.सुर में गाइये-बेसुरे होकर गाइये…लेकिन गाइये……नन्हीं नन्हीं बूँदिया मेहा बरसे….नहीं तो ग़ुलाम अली की कजरी सुन लीजिए……बरसन लागी सावन बुँदिया राजा….तोरे बिन ना लागे मोरा जिया….या फ़िर भारतरत्न भीमसेन जोशी का बादरवा बरसन लागी सुने……और नहीं तो हमारे इन्दौर की आन उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब के धीर-गंभीर स्वर में रचा मेघ का कैसेट लगा लें…..बरखा ऋतु आई….. इन सभी सुरीली चीज़ों को बरसते पानी में सुनने का मज़ा कुछ और है…मशवरा सिर्फ़ इतना है कि कुदरत के निज़ाम का इस्तेकबाल कीजिये हुज़ूर…..अल्लाह की ये नेमत किसी शहंशाह के हुक़्म की तामील भी नहीं करती और किसी ग़रीब की प्रार्थना पर भी हाज़िर हो जाती है……ये बूँदें किसी स्नैपड़ील या अमेज़न डॉट कॉम पर ऑर्डर नहीं की जा सकती…...बस ह्रदय के सच्चे गीत की टेर लगाइये कि बरखा रानी हम अंत:करण से तुम्हे बधाते हैं
यह मालवा के पुरातत्व और इतिहास की अभिनंदन बेला है
12 years ago