आज हर कोई "अपने' धर्म की ध्वजा को ऊँची से ऊँची उठाने की "जुगाड़' में लगा दिखता है। इस बनावटी उड़ान में धर्म का असल और सार्थक-सहज संदेश बुरी तरह से अपनों ही के पैरों तले दबा-कुचला जाता है। धर्म के कुरूक्षेत्र में सबके पास स्वार्थ भरे बयानों के तीर और तलवारे हैं। रूढ़ियों के जकड़ने वाले सहारे हैं। इसीलिए धर्म आधारित मुद्दों पर आजकल बात का बतंगड़ बनता ही बनता है। इन मामलों में एक-दूजे पर कीचड़ उछालना तो अब आम हो चला है। "विपक्षी' धर्म में कथित बुराइयॉं खोजना एक शगल बनता जा रहा है। धर्म विशेष में निहित विषय-वस्तु और संदर्भों की अनदेखी कर और चंद जुमलों को जोड़ कर लोग आपसी चर्चाओं में अपने मतलब के अर्थ जड़ देते हैं। इससे धर्म विशेष के दुष्प्रचार में मौक़ा परस्तों और फ़िरक़ापरस्तों को अपने मतलब का भोपू बजाने का अवसर मिलता है। साथ ही जनमानस में धर्म विशेष के प्रति भ्रम और भ्रांति पैदा हो जाती है। दो धर्मों के बीच खींची इस द्वेष की दीवार को तोड़ने के लिए आवश्यक है कि आपस में बात हो। पर आत्मा को सॅंवारती और मॉं भारती को निखारती सद्भाव भरी समवेदनाएँ और संवाद आज दुर्लभ ही होता जा रहा है।
हमारी पहली चिंता यह हो कि हम आपसी चर्चा में एक-दूसरे के धर्म के प्रति आदर भाव प्रकट करें। उपयुक्त समय पर मधुर भाव से एक-दूसरे के प्रति सहज जिज्ञासाएँ भी ज़रूर प्रकट करें मगर पूर्वग्रह और भ्रांतियों के निवारण में मात्र कही-सुनी अथवा सुनी-सुनाई मान्यताओं पर तवज्जो न दें। धर्मों के गूढ़ निहितार्थों पर बेवजह होती अप्रामाणिक चर्चाओं की अनदेखी करना ही बेहतर है। असल में क्रूरता, भेद और मुख़ालफ़त के जोश में नासमझी से आज का आदमी किसी की बात मानता नहीं, हज़ार दलीलों से अपनी ही बात पर अड़ा रहता है और इसी से सदभाव ख़ारिज होता रहता है और ये इस बात की निशानी है कि हमारे दिलों पर ताले पड़े हैं। आदमी यह क्यों नहीं मान लेता कि परमात्मा की ख़ुशख़बरी के सब हक़दार हैं! सब धर्मों की मूल अवधारणा में इंसान की बेहतरी के इशारे ही दर्ज़ हैं चाहे वह कोई भी धर्म हो। और इन इशारों, तालिमों और नसीहतों में ही सच्चा इल्म और ज्ञान छिपा है जिसके ज़रिये सत्य अपने आप साबित होता रहता है। ख़याली भ्रमों और वहमी रस्मों ने ही जीवन से स्नेह को बेदख़ल किया है हम सबों से! संशय, ज़िद और नासमझी से ही तो आदमी उलझनों और गिरोहों में बॅंटा है। इसकी गिऱफ़्त से छूटना ही सबके लिये अभीष्ट है। परमात्मा अथवा रब की रज़ामंदी का सही और सच्चा रास्ता प्रेम की पगडंडियों से होकर ही गुज़रता है।
यह मालवा के पुरातत्व और इतिहास की अभिनंदन बेला है
12 years ago
बहुत ही सटीक और सार्थक बात कही आपने ..आभार
ReplyDeleteसटीक और सार्थक बात...
ReplyDeleteधर्म शाश्वत नही है इसे तो बनाया बिगाड़ा जा सकता है और फ़िर ये तो निज़ी मामला है सामुदायिक बनाइये किन्तु डरा धमका कर नही
ReplyDeleteअच्छी रचना। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।
ReplyDeleteWah dada bilkul sahi kaha aapne !!
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ReplyDeleteआदरणीय पटेल साहब,
ReplyDeleteआपसे कभी इन्दौर में रहते हुये भी संवाद नही बना पाया, आपके विराट आभामंडल के समक्ष मैं खड़ा भी नही रह पाया। आज आपसे इस ब्लॉग माध्यम से बात कर पा रहा हूँ।
यदि आपकी या श्री संजय की उपस्थिती/सहयोग ना हो तो शायद इंदौर में कोई कार्यक्रम किसी स्तर को छू नही सकता।
बहुत ही सही कहा है इस आलेख में जाति और पंथ से ऊपर उठकर ही मानवता का समग्र विकास हो सकता है एक दूसरे की मदद से ना कि आपस में झगड़ते हुये।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी